लेखनी कहानी -10-Jan-2023 मुहावरों पर आधारित कहानियां
14. अंत भले का सब भला
यह कहानी अंत भले का सब भला मुहावरे को ध्यान में रखकर लिखी गई है ।
कभी कभी कोई एक शब्द, एक पद, एक दोहा या एक वाक्य ऐसा कहा जाता है जो कइयों की जिंदगी बदल जाता है । आज एक ऐसा ही दोहा आपके समक्ष इस कहानी के माध्यम से प्रस्तुत है जिसने कइयों की जिंदगी बदल दी । कहानी इस प्रकार है ।
एक राजा था । वह राजपाट में इतना व्यस्त रहता था कि उसे कुछ होश नहीं रहता था । वह वृद्ध भी हो गया था लेकिन वह दिन रात प्रजा की भलाई में ही लगा रहता था । मंत्रीगण राजा की अति व्यस्तता से बहुत चिंतित थे । काम के साथ साथ आमोद प्रमोद भी तो होना चाहिए न तभी तो तन और मन स्वस्थ रहेगा । इससे काम करने के लिए ऊर्जा भी अधिक मिलेगी । अत: मंत्रीगणों ने तय कर लिया कि राज्य में कोई विशाल आयोजन करवाया जाये जिसमें खूब सारा नाच गाना हो और उसमें मनोरंजन का खूब आनंद लिया जाये ।
उन्होंने राजा को समझाया तो राजा भी इस उत्सव के लिए तैयार हो गया । राज्य की सुप्रसिद्ध नर्तकियां इस आयोजन के लिए बुलवाई गईं । दूसरे देशों के राजाओं को परिवार सहित आमंत्रित किया गया । संपूर्ण प्रजा को भी इस आयोजन को देखने के लिए बुलाया गया था । राजा ने अपने गुरू को इस आयोजन को देखने के लिए विशेष रूप से आमंत्रित किया था ।
राजा ने गुरू के आगमन पर उनका यथायोग्य आदर सत्कार किया और उन्हें 100 स्वर्ण मुद्राऐं देकर उनके चरणों में शीश झुकाकर उन्हें उचित आसन पर बैठा दिया । समस्त राज्यों के राजा, रानी, राजकुमार और राजकुमारियों को भी यथोचित आदर सम्मान के साथ बैठाया गया और मां शारदा की पूजा के उपरांत उत्सव प्रारंभ हो गया ।
सभी नर्तकियां न केवल सौन्दर्य की देवी थीं अपितु नृत्य कला में पूर्णत: पारंगत भी थीं । उनकी टीम में एक से बढकर एक वाद्य कलाकार थे जो तबला, हारमोनियम वगैरह यंत्रों पर अपनी कलाकारी प्रकट कर रहे थे । संगीत की लय पर घुंघरुओं की आवाज उस पर नृत्यांगनाओं का लचीला बदन और थिरकते कदम सितम ढा रहे थे । प्रमुख नृत्यांगना के नृत्य का तो कहना ही क्या था । सब लोग मंत्र मुग्ध होकर उसका नृत्य देखते रहे । रात के तीन पहर बीत चुके थे और अब केवल एक पहर ही शेष रह गया था । अन्य सभी नर्तकियों का नृत्य समाप्त हो चुका था । अब केवल प्रमुख नृत्यांगना का नृत्य ही चल रहा था । रात लगभग समाप्त होने को थी और थोड़ी देर में सूर्य भगवान अपने रथ के साथ संपूर्ण विश्व को आलोकित करने के लिए आने को तैयार हो रहे थे । इतने में प्रमुख नर्तकी ने एक दोहा सुनाया
बहुत गई थोड़ी रही , थोड़ी भी कट जाय ।
थोड़ी देर के कारणै, कहीं कलंक नहीं लग जाय ।।
इस दोहे को सुनकर सब कलाकार वाह वाह कर उठे और उन्होंने कुछ उपहार उस प्रमुख नर्तकी को दे दिये । इस पर वह नर्तकी और उत्साहित हो गई और उसने फिर से वह दोहा सुना दिया । अबकी बार राजा के गुरू ने 100 स्वर्ण मुद्राऐं जो राजा ने उन्हें दी थी, नर्तकी को भेंट में दे दी । यह देखकर नर्तकी और जोश में आ गई और उसने फिर से उस दोहे को दोहरा दिया । अबकी बार राजकुमार ने अपना गले का हार उस नर्तकी को दे दिया । राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ कि उस दोहे में ऐसा क्या था कि वह सभी को इतना पसंद आ गया था । वह अभी सोच ही रहा था कि नर्तकी ने उस दोहे को एक बार और गा दिया । अबकी बार राजकुमारी ने अपने हीरे मोती जड़ित स्वर्ण के कंगन उस नर्तकी को दे दिये । राजा के विस्मय का कोई ठिकाना नहीं रहा ।
राजा ने गुरू से कहा "तात ! मैंने जो 100 स्वर्ण मुद्राऐं आपको भेंट में दी थीं वे सारी आपने इस नर्तकी को दे दीं । ऐसा क्या था उस दोहे में जो आपने ऐसा किया" ?
गुरूजी बोले "राजन , मैं एक सन्यासी वृत्ति का व्यक्ति हूं । मेरी उम्र भी बहुत हो गई है । इस नर्तकी ने जब यह दोहा सुनाया तो इससे मेरी आंखें खुल गईं और मैं सोचने पर विवश हो गया कि मैंने सांसारिक कामों में बहुत उम्र व्यतीत कर दी है , अब तो थोड़ी सी उम्र बची है । इस थोड़ी सी बची उम्र में मुझे अपने आराध्य श्रीकृष्ण भगवान की भक्ति करनी चाहिए और मैं यहां पर एक नर्तकी का नृत्य देख रहा हूं । मुझ जैसे व्यक्ति को यह शोभा नहीं देता है । इससे मेरे मस्तक पर कलंक लगने की संभावना है क्योंकि सन्यासियों के लिए ये नाच गाना वगैरह वर्जित है । अत: मुझे दिव्य ज्ञान हो गया और मेरे लिए वे 100 स्वर्ण मुद्राऐं बेकार हो गईं । चूंकि इस नर्तकी ने मुझे इतने महान ज्ञान से साक्षात्कार करवाया है इसलिए इसे पारिश्रमिक के रूप में वे सभी मुद्राऐं मैंने इसे दे दीं" । सब लोगों ने गुरूजी के ज्ञान, वैराग्य और संकल्प की भूरि भूरि प्रशंसा की ।
इसके बाद राजा ने राजकुमारी से वही प्रश्न पूछा । राजकुमारी ने कहा "पिताजी मुझे क्षमा कीजिए । मैं जो भी कहूंगी, सच कहूंगी और इससे आपके मन को दुख पहुंचेगा । आप राज काज में इतने डूबे हुए थे कि आपको यह भी ध्यान नहीं रहा कि आपकी पुत्री बहुत पहले ही यौवन की दहलीज पार कर चुकी है । उसके विवाह की चिंता आपको होनी चाहिए थी मगर आप तो राज काज में व्यस्त थे । आप एक पिता के कर्तव्य से आंखें मूंदकर बैठे हुए थे । इसलिए मैंने कुल की मर्यादा के विरुद्ध जाकर एक युवक के साथ भाग जाने का निश्चय कर लिया था । मगर इस नर्तकी के दोहे ने मुझे सोचने पर विवश कर दिया कि जब इतने दिन इंतजार किया है तो थोड़े दिन और इंतजार कर ले । कुल पर कलंक का टीका क्यों लगाने जा रही है ? बस, यही सोचकर मैंने इसे अपने कंगन दे दिये" ।
राजा को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसने राजकुमारी से कहा "यहां पर सभी राज्यों के राजकुमार आये हैं । जो तुम्हें पसंद हों तुम उसके साथ विवाह कर सकती हो" । राजकुमारी ने अपनी पसंद के राजकुमार के साथ विवाह कर लिया ।
इसके बाद राजा ने राजकुमार से पूछा तो राजकुमार कहने लगा "पिताजी आप कितने वृद्ध हो गये हैं और मैं कब का युवा हो चुका हूं । मैं राजपाट करने के पूर्ण योग्य भी हूं लेकिन आपको राज्य करने का मोह इतना ज्यादा है कि आप इस गद्दी से हट ही नहीं रहे हैं । इंतजार करते करते मैं थक गया था इसलिए मेरे मन में एक कुविचार आ गया । मैंने सेनापति से मिलकर आपकी हत्या करने की योजना बना ली थी । इस उत्सव की समाप्ति पर आपकी हत्या हो जाती पर इस नर्तकी के दोहे ने मुझे पाप कर्म करने से बचा लिया और मैं कलंकित होने से बच गया । इसी कारण मैंने अपने गले का हार इसे दे दिया था"
तब राजा को अपनी भूल का एक बार और अहसास हुआ और उसने उसी समय सब राजाओं की उपस्थिति में उसका राजतिलक कर दिया ।
तब राजा ने सभी कलाकारों से पूछा तो उन्होंने बताया कि पूरी रात जागरण करने के कारण उन्हें नींद आने लगी थी । नर्तकी ने इस दोहे से हम सबको चेता दिया कि हमारी असावधानी के कारण उसके नृत्य में व्यवधान उत्पन्न हो रहा है । कहीं राजा को पता चल गया तो वे बहुत नाराज होंगे और सबको दंडित कर देंगे । इसलिए कलंक का टीका मत लगवाओ । जैसे ही हमने वह दोहा सुना तो हम लोग अलर्ट हो गये इसीलिए वे उपहार हमने इन्हें दे दिये थे ।
अब राजा ने नर्तकी से पूछा तो नर्तकी ने कहा "महाराज, पूरी रात इतना भव्य कार्यक्रम चला जो वर्णनातीत है । रात का एक पहर रह गया था और इन कलाकारों को नींद आने लगी थी इसलिए मैंने इशारे से इन्हें सचेत कर दिया था । ये लोग मेरा इशारा समझ गए और सचेत हो गये" ।
"आज तुमने इस राज्य पर बहुत अहसान किया है नर्तकी । मैं तुम्हारे इस अहसान को चुकाने में असमर्थ हूं फिर भी तुम जो चाहो मांग लो, मैं देने में कोई संकोच नहीं करूंगा" ।
"महाराज मैं एक अदनी सी नृत्यांगना हूं जिसकी समाज में कोई इज्जत नहीं होती है । आज के वाकये से मेरे मन में भी वैराग्य उत्पन्न हो गया है और मैं अब इस पेशे को छोड़कर बाकी की उम्र भगवान की सेवा करने में लगाना चाहती हूं । धन दौलत अब मेरे लिए मिट्टी के सदृश है । अब मुझे वन गमन की इजाजत दीजिए महाराज" ।
"तुम सही कहती हो नर्तकी । मुझे भी आज वैराग्य हो गया है । आओ, हम सब लोग गुरूजी के साथ वन में चलें और भगवान की आराधना करने में अपना बाकी का जीवन व्यतीत करें" । और राजा तथा नर्तकी गुरूजी के साथ वन में चले गये । सच ही कहा है कि अंत भले का सब भला । नर्तकी के एक दोहे ने पूरे राज्य का भला कर दिया ।
श्री हरि
18.1.2023
Gunjan Kamal
20-Jan-2023 04:17 PM
शानदार
Reply
Hari Shanker Goyal "Hari"
22-Jan-2023 08:06 PM
धन्यवाद मैम
Reply
Babita patel
20-Jan-2023 03:19 PM
nice one
Reply
Hari Shanker Goyal "Hari"
22-Jan-2023 08:06 PM
💐💐🙏🙏
Reply